Friday 25 April 2014

देखिए, स्वर्ग जमीन पर उतर आया.....


देखिए, स्वर्ग जमीन पर उतर आया.....

विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र देश भारत में अभी चुनाव का मौसम चल रहा है। चुनावी मौसम में मोदी देश में गुजरात मॉडल लाना चाहते हैं, लेकिन गुजरात का मॉडल क्‍या है? गुजरात में गरीबों का हाल क्‍या है? भाजपा हंमेशा ऐसा दावा करती है जैसे उनके आने पर स्वर्ग जमीन पर उतर आयेगा पर यह सच्चाई वे नहीं बताते कि खुद गुजरात एक लाख 75 हजार करोड़ के कर्ज में डूबा है। जी हाँ आपको ये सुनकर आश्चर्य होना लाजिमी है क्योंकि अब तक जिस तरह से गुजरात कि ब्रांडिंग और मार्केटिंग के बल पर पिछले कई सालो से पूरे देश में मॉडल स्टेट के रूप में पेश किया जा रहा हो और जिसकी छवि इस तरह से बनायी गयी हो कि हर भारतीय के दिमाग में गुजरात के विकास का जादू सर चढ़ कर बोल रहा हो ऐसे राज्य के बारे में ये सुनना थोडा अटपटा और अविश्वसनीय जरूर लग सकता है लेकिन ये सौ फीसदी सत्य है जिसे दिखाने कि हिम्मत आज के दौर में शायद ही मीडिया कर पाए।


यूँ अगर विकास के पैमाने पर देखा जाए तो देश में गुजरात को आज पहले स्थान पर रखने कि परम्परा सी बन गयी है लेकिन अगर प्रति व्यक्ति क़र्ज़ कि बात कि जाए तो इसमें भी गुजरात पूरे देश में सभी राज्यों से अव्वल है। पिछले दस सालो में जिस गति से गुजरात का विकास हुआ है उससे दुगुने तीगुने गति से गुजरात पर क़र्ज़ का बोझ बढ़ा है और आज स्थिति ऐसी हो गयी है कि गुजरात का ये क़र्ज़ उसे ऐसे भंवर जाल में फंसा चूका है जिससे निकलना भविष्य में शायद ही कभी सम्भव हो पाए।



बताते चलें कि 2001- 2002 में जब मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने सत्ता अपने हाथ में लीं तब गुजरात पर सिर्फ 45 हजार करोड़ रुपए का क़र्ज़ था जो उनके कार्यकालके साथ बढ़ते हुए आज लगभग पौने 2 लाख करोड़ तक पहुंच चूका है तथा अगले कुछ सालों में ये आंकड़ा 2 लाख करोड़ तक पहुंच सकता है। 1995 में जबबीजेपी पहली बार सत्ता में आयी तब गुजरात पर सिर्फ 10 हजार करोड़ का ही क़र्ज़ था। गुजरात के बजट का एक बड़ा हिस्सा ब्याज के रूप में चला जाता हैजिसका बुरा असर राज्य की अर्थव्यवस्था के साथ- साथ सरकारी सेवाओं, शिक्षा, स्वास्थ्य सहित अन्य बुनियादी सुविधाओं पर पड़ रहा है, यही कारण है किआज गुजरात में पेट्रोल, बिजली सहित अन्य आवश्यक साधन महंगे हैं। अगर टैक्स की बात की जाए तो गुजरात में वैट की दर पूरे देश में सबसे अधिक है,इसलिए यहाँ कृषि उपकरणों सहित फ़र्टिलाइज़र पर भी लोगों को वैट चुकाना पड़ रहा है।

 
आज देखा जाए तो गुजरात के प्रत्येक व्यक्ति के सिर पर लगभग 24 हजार यानि एक परिवार पर औषतन लगभग सवा लाख का क़र्ज़ है जिसका ब्याज हर परिवार प्रतिदिन चूका रहा है। आज क़र्ज़ के एवज़ में गुजरात सरकार प्रतिदिन लगभग 34.5 करोड़ का ब्याज चुकाती है यानि कि 1035 करोड़ रुपया महीना और लगभग साढ़े बारह हजार करोड़ सालाना यानि कि अगर गुजरात सरकार अब और क़र्ज़ ना भी ले तब भी प्रति वर्ष उसके क़र्ज़ में 12 हजार करोड़ कि वृद्धि होती है और साल दर साल वो चक्रवृद्धि व्याज के भंवर जाल में फंसती जा रही है जिससे निकलना शायद ही भविष्य में कभी सम्भव हो पाए।



अगर यही हाल रहा तो आज के गुजरात के चमक धमक पर पानी कि तरह बहाया जा रहा धन कल के गुजरात को कंगाली के अंधेरों में धकेल सकता है अगर क़र्ज़ के इस जाल से निकलने का रास्ता अभी से ना निकला जाए अब वक्त आ गया है जब गुजरात के चमक धमक से चौंधियायी आँखों को दर्पण के पीछे के खुरदरे हिस्से कि हकीकत को भी देखने कि जरुरत है। गुजरात मॉडल वायब्रेंट नहीं पर कर्जदार मॉडल बन गया है। क्या गुजरात का ऐसा हाल करनेवालों के हाथ में आप देश सौपना चाहेंगे? क्या आप गुजरात की तरह पुरे देश को कर्ज़दार बनाना चाहते हो?

Monday 21 April 2014

विकास मॉडल का फूटा गुब्बारा




भाजपा ने अपना अश्वमेध वाला घोड़ा सिकंदर महान की तरह भारत विजय अभियान के नाम पर छोड़ दिया है। वह भारत विजय किए बिना मानने वाला नहीं है। सिकंदर भी विश्व-विजय के बिना मानने वाला नहीं था, लेकिन सतलज नदी पार नहीं कर पाया। वापस वतन लौटा तो घर तक पहुंचते अज्ञात जगह पर उसे फौत होना पड़ा। पिछले लोकसभा चुनावों में भाजपा का फील गुड और इंडिया शाइनिंग का नारा फील बैड और कांग्रेस शाइनिंग में तब्दील हो गया। उससे सबक लेकर भाजपा, बल्कि संघ परिवार ने गुजरात मॉडल के विकास को राष्ट्रीय स्तर पर लागू करने का खुद में जोश भर लिया है।

यह गुजरात मॉडल क्या है और क्या है इसका मिथक? विदेशी प्रत्यक्ष पूंजी निवेश, रोजगार सुविधाओं, लोक-स्वास्थ्य और साक्षरता जैसे कई मानकों पर गुजरात 2011 की जनगणना के वक्त देश में सत्रहवें स्थान पर रहा। कुछ मानकों पर वह इतने नीचे नहीं रहा, लेकिन अग्रणी प्रदेश होने के उसके दावे गलत सिद्ध हुए। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के दस्तावेजों के अनुसार गुजरात पोषण-आहार, शिक्षा, रोजगार, वेतन, उपभोक्ता मूल्य सूचकांक, ग्रामीण नियोजन,स्वास्थ्य, पर्यावरण वगैरह में काफी पिछड़ा रहा है।

पुरे देश में गुजरात के विकास मॉडल के बड़े बड़े दावे करने वालों का गुब्बारा फुट गया है। गुजरात सोशियल वॉच के मुताबिक आज गुजरात की वस्ती ५ करोड़ से बढ़कर ६.०३ करोड़ क हो गई है। पर इसके सामने रोजगारी की तक में कोई बढ़ावा न होने से बेरोजगार की संख्या में वृद्धि हुई है। सुवर्ण जयंती ग्रामस्वरोजगार योजना में रु. ४.१४ करोड़ खर्च करने का आयोजन किया गया था पर हकीकत में आज तक उनके पीछे एक रुपये का भी खर्च नहीं किया गया।  गुजरात सरकार द्वारा वर्ष २००० में २.१५ लाख लोगों को रोजगारी मिलती थी पर आज राज्य सरकार के माध्यम से केवल १.७० लाख लोगों को ही रोज़गारी मिल रही है। अर्धसरकारी नौकरी का प्रमाण भी ३.०३ लाख से कम होकर २.२९ लाख हो गया है।

ग्रामीण रोजगारी के लिए अनुमानित किए ८२८ करोड़ के खर्च में से सिर्फ रु. ६६० करोड़ का ही खर्च हुआ है। और २०११ के वाइब्रेंट गुजरात में २०.८६ लाख के MOU हुए थे पर आज उनमे से सिर्फ २.७८ लाख के MOU  का ही अमल हुआ है। प्राइवेट क्षेत्र में महिलाओं की रोजगारी की प्रतिशतता १०.२६ प्रतिशत से कम होकर १०.०२ प्रतिशत हो गई है। वो अपनी पब्लिसिटी के लिए बड़े बड़े वादे करके केवल लोगों को गुमराह करना ही जानते हैं।

विकास को लेकर नरेंद्र मोदी की जिस कथित लहर की चर्चा मीडिया में इतने ज़ोर-शोर से हो रही है, उसकी सच्चाई क्या है? क्या यही एक उजली तस्वीर है या इसके दाग़ों को लीप-पोत कर शक़्ल बेहतर दिखाई जा रही है। क्या इस मॉडल का मतलब उन्हें उद्योगों को प्राथमिकता देना और उस प्रक्रिया में ग़रीबों की अनदेखी करना लगता है या ग़रीबी पर सिर्फ़ बात न करके उन्हें विकास की प्रक्रिया के ज़रिए बेहतर हालात में पहुँचाने के नरेंद्र मोदी के दावे में दम है?

Thursday 10 April 2014

मानव कल्याण सूचकांक में भी पिछड़ा गुजरात....



सन् 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा व मोदी के प्रचार अभियान का एक मुख्य मुद्दा यह है कि यूपीए ने भारतीय अर्थव्यवस्था का सत्यानाश कर दिया है और मोदी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार, भारत की अर्थव्यवस्था को नई ऊंचाईयों तक ले जाएगी। इन दावों में कितनी सच्चाई है?

देश का प्रधानमंत्री बनने की दौड़ में सबसे आगे माने जा रहे भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी का राज्य गुजरात मानव विकास से संबंधित एक सूचकांक में पिछड़ गया है, दूसरी तरफ सिक्किम जैसा छोटा सा राज्य इस सूचकांक में शीर्ष पर है। इस सूचकांक में गुजरात की रैंकिंग में लगातार और भारी गिरावट आई है। 

ओ.पी. जिंदल ग्लोबल युनिवर्सिटी (जेजीयू) ने गुरुवार को नीति प्रभावोत्पादकता सूचकांक (पीईआई) जारी करते हुए कहा, "गुजरात 1981 में 35 (राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों) राज्यों में 10वें स्थान पर था, जो 2001 में 17 पर चला गया और 2011 में 24वें स्थान पर चला गया।" इस अवसर पर मौजूद निर्णायकों में यूनिसेफ इंडिया के सलाहकार ए.के. शिवा कुमार ने कहा, "शत प्रतिशत सफाई व्यवस्था वाले सिक्किम में डायरिया के बेहद कम मामले सामने आए हैं।" 

विश्वविद्यालय के भारत लोकनीति रिपोर्ट 2014 (आईपीपीआर) के तहत जारी रिपोर्ट में विभिन्न राज्यों का मूल्यांकन नीतियों के परिणास्वरूप होने वाले विकास के आधार पर किया गया है। विश्वविद्यालय ने अपने बयान में कहा, "सूचकांक बहुआयामी है और इसमें मानव कल्याण से संबंधित चार उपसूचकांक शामिल हैं : जीविकोपार्जन के अवसर, सामाजिक रूप से सार्थक जीवन, जीवन की सुरक्षा और कानून का शासन तथा जीवन स्तर में लगातार सुधार के लिए सुविधाएं।" इस प्रथम आईपीपीआर को बुधवार को यहां योजना आयोग के सदस्य अभिजीत सेन ने लांच किया। रिपोर्ट का प्रकाशन विश्वविद्यालय और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय प्रेस ने मिलकर किया है। सेन ने रिपोर्ट जारी करते हुए गुजरात की रैंकिंग में गिरावट पर कहा, "ऐसा अवसंरचना सूचकांक के कारण हुआ है। ऐसा इसलिए नहीं हुआ है, क्योंकि गुजरात में अवसंरचना सुधार पर खराब काम किया गया है, बल्कि दूसरे राज्यों द्वारा अवसंरचना पर कहीं बेहतर कार्य किए जाने की वजह से है।"  
 
जिस समय पूरी दुनिया आर्थिक मंदी के दौर से गुजर रही हो उस समय देश की अर्थव्यवस्था को एक ऐसी पार्टी के हाथ में सौंपना,  जिसमें एक भी सक्षम अर्थशास्त्री नहीं है,  आर्थिक आत्महत्या करने जैसा है। कुएं के मेंढ़क की तरह मोदी और भाजपा कभी वैश्विक आर्थिक संकट की बात नहीं करते और ना ही उसके कारणों में जाना चाहते हैं। अगर कोई भी यह कष्ट उठाएगा तो उसे यह समझ में आ जाएगा कि नवउदारवाद के धीमे जहर से रूग्ण होती जा रही अर्थव्यवस्था के लिए जिस ‘‘दवाई‘‘ की वकालत भाजपा और एनडीए कर रहे हैं, दरअसल, वह इसी धीमे जहर की जानलेवा डोज है।  

Friday 4 April 2014

हालत ऐसी तो न थी मुसलामानों की...


2002 में गुजरात के गोधरा में हुए दंगों में लगभग 1000 लोग मारे गए थे पर मोदी उस पर चुप्पी ले ली है। और उसे भूल जाने को कह रहा है और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर नौजवान मुसलमानों को गुमराह कर रहे हैं। अगर हम 2002 के गोधरा के जनसंहार को भूल भी जाये तो भी आतंकवाद के दमन के नाम पर सिलसिलेवार ढंग से हो रही फर्जी मूठभेड़ो में मुसलमानों की हत्या को हम कैसे भुला पाएंगे। कुछ देर के लिए अगर हम इन क़ानूनी हत्यारों को भी भूल जाएँ और प्रदेश में पिछले 10 वर्षों के दौरान मुसलमानों की आर्थिक और शैक्षणिक विकास पर नजर दौड़ाए तो पता चलेगा की मोदी सरकार ने गुजरात के मुसलमानों के साथ किस प्रकार की भेदभाव की नीति को सुविचारित ढंग से आपनाया है।

गुजरात में मुसलमानों की जनसंख्या गुजरात की कुल जनसंख्या का 9.7% है पर वर्तमान सरकार द्वारा पिछले एक दशक में चलाये गए SJSRY (स्वर्ण जयंती शहरी रोज़गार योजना)  और NSAP (नैशनल सोशल असिस्टेंस प्रोग्राम)  योजना को छोड़कर ज्यादातर योजनाओं में मुसलमानों की भागीदारी उनके जनसंख्या के अनुपात से कम ही है। कृषि बीमा योजना में मुसलमानों की भागीदारी मात्र 3.5% है, जबकि पॉवर टिलर आवंटन के मामले में मुसलमानों की भागीदारी मात्र 1.4% और ट्रेक्टर के मामले में 4.1% है। गुजरात में मोदी के शासन काल में सहकारी बैंक या ग्रामीण विकास बैंक से वहां के मुसलमानों को किसी प्रकार का कोई कर्ज नहीं मिला है।

2004-05 में गुजरात में 41% मुसलमान सेवा क्षेत्र में नौकरी करते थे जो कि 2009-10 में घटकर 31.7% रह गया। उसी प्रकार 2004-05 में 59% मुसलमान स्वरोज़गार करते थे जो कि 2009-10 घटकर 53%रह गया। इसी काल के दौरान मुसलमानों कि वेतनभोगी नौकरियों में भागीदारी 17.5%से घटकर 14% हो गई। यह भी गौर करने वाली बात है कि गुजरात में अनियमित मजदूरी कि कुल भागीदारी में मुसलमानों का हिस्सा इसी कालावधि के दौरान 23% से बढ़कर 32% हो गया है। इसका मतलब तो यही है कि मोदी के शासनकाल के दौरान गुजरात में मुसलमानों को निम्न दर्जे के रोजगारो कि ओर धकेला जा रहा है।

2001 में जब गुजरात कि कुल साक्षरता दर 69.1% थी तब वहाँ के मुसलमानों में साक्षरता दर 73.5% थी जबकि 2007-08 में जब गुजरात कि कुल साक्षरता दर 74.9% हो गई तब भी वहाँ के मुसलमानों में साक्षरता दर 74.3% है। 6-14 वर्ष की आयु वर्ग के बच्चों द्वारा किसी प्रकार के शैक्षणिक संस्थानों में नामांकित होने के मामले में गुजरात के हिन्दू और मुस्लिम समाज में औसत अंतर राष्ट्रीय औसत से कम है। क्या इन सब के पीछे गुजरात सरकार के द्वारा मुसलमानों के साथ किये जाने वाले भेदभाव कि नीति जिम्मेदार नहीं है? यदि हम तुलना ही करना चाहते हैं तो मोदी जी के शासन संभालने और उनके शासन संभालने के पूर्व के समय में गुजरात के मुसलमानों के जीवन स्तर की तुलना करनी चाहिए जिससे ये पता चल सकेगा कि मोदी जी ने गुजरात के मुसलमानों के साथ क्या किया है। इस आलोक में फैसला आपको करना है। इन हालात में मुसलमानों का चुनावी फ़ैसला क्या हो सकता है?