Monday 21 April 2014

विकास मॉडल का फूटा गुब्बारा




भाजपा ने अपना अश्वमेध वाला घोड़ा सिकंदर महान की तरह भारत विजय अभियान के नाम पर छोड़ दिया है। वह भारत विजय किए बिना मानने वाला नहीं है। सिकंदर भी विश्व-विजय के बिना मानने वाला नहीं था, लेकिन सतलज नदी पार नहीं कर पाया। वापस वतन लौटा तो घर तक पहुंचते अज्ञात जगह पर उसे फौत होना पड़ा। पिछले लोकसभा चुनावों में भाजपा का फील गुड और इंडिया शाइनिंग का नारा फील बैड और कांग्रेस शाइनिंग में तब्दील हो गया। उससे सबक लेकर भाजपा, बल्कि संघ परिवार ने गुजरात मॉडल के विकास को राष्ट्रीय स्तर पर लागू करने का खुद में जोश भर लिया है।

यह गुजरात मॉडल क्या है और क्या है इसका मिथक? विदेशी प्रत्यक्ष पूंजी निवेश, रोजगार सुविधाओं, लोक-स्वास्थ्य और साक्षरता जैसे कई मानकों पर गुजरात 2011 की जनगणना के वक्त देश में सत्रहवें स्थान पर रहा। कुछ मानकों पर वह इतने नीचे नहीं रहा, लेकिन अग्रणी प्रदेश होने के उसके दावे गलत सिद्ध हुए। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के दस्तावेजों के अनुसार गुजरात पोषण-आहार, शिक्षा, रोजगार, वेतन, उपभोक्ता मूल्य सूचकांक, ग्रामीण नियोजन,स्वास्थ्य, पर्यावरण वगैरह में काफी पिछड़ा रहा है।

पुरे देश में गुजरात के विकास मॉडल के बड़े बड़े दावे करने वालों का गुब्बारा फुट गया है। गुजरात सोशियल वॉच के मुताबिक आज गुजरात की वस्ती ५ करोड़ से बढ़कर ६.०३ करोड़ क हो गई है। पर इसके सामने रोजगारी की तक में कोई बढ़ावा न होने से बेरोजगार की संख्या में वृद्धि हुई है। सुवर्ण जयंती ग्रामस्वरोजगार योजना में रु. ४.१४ करोड़ खर्च करने का आयोजन किया गया था पर हकीकत में आज तक उनके पीछे एक रुपये का भी खर्च नहीं किया गया।  गुजरात सरकार द्वारा वर्ष २००० में २.१५ लाख लोगों को रोजगारी मिलती थी पर आज राज्य सरकार के माध्यम से केवल १.७० लाख लोगों को ही रोज़गारी मिल रही है। अर्धसरकारी नौकरी का प्रमाण भी ३.०३ लाख से कम होकर २.२९ लाख हो गया है।

ग्रामीण रोजगारी के लिए अनुमानित किए ८२८ करोड़ के खर्च में से सिर्फ रु. ६६० करोड़ का ही खर्च हुआ है। और २०११ के वाइब्रेंट गुजरात में २०.८६ लाख के MOU हुए थे पर आज उनमे से सिर्फ २.७८ लाख के MOU  का ही अमल हुआ है। प्राइवेट क्षेत्र में महिलाओं की रोजगारी की प्रतिशतता १०.२६ प्रतिशत से कम होकर १०.०२ प्रतिशत हो गई है। वो अपनी पब्लिसिटी के लिए बड़े बड़े वादे करके केवल लोगों को गुमराह करना ही जानते हैं।

विकास को लेकर नरेंद्र मोदी की जिस कथित लहर की चर्चा मीडिया में इतने ज़ोर-शोर से हो रही है, उसकी सच्चाई क्या है? क्या यही एक उजली तस्वीर है या इसके दाग़ों को लीप-पोत कर शक़्ल बेहतर दिखाई जा रही है। क्या इस मॉडल का मतलब उन्हें उद्योगों को प्राथमिकता देना और उस प्रक्रिया में ग़रीबों की अनदेखी करना लगता है या ग़रीबी पर सिर्फ़ बात न करके उन्हें विकास की प्रक्रिया के ज़रिए बेहतर हालात में पहुँचाने के नरेंद्र मोदी के दावे में दम है?

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